विद्वान पंडित जी और भोले लोग
गांव के मंदिर में सीधे साधे गांव वासी और वृद्ध पंडित जी बड़ी ही श्रद्धा भाव से सुबह और शाम भगवान श्री हरि विष्णु जी की आरती किया करते थे। मंदिर में भगतो के आरती गायन एंव घंटियो की मधुर ध्वनि से मानो लगता था कि स्वयं हरि विष्णु वहां नित्य प्रति आरती सुनने आते हो। मंदिर की रौनक देखते ही बनती थी।
पंडित जी को शास्त्रों का ज्ञान तो सीमित था पर उनका स्वभाव बहुत सरल था। इसलिए सब लोग उनका सम्मान करते थे।
एक दिन अचानक पंडित जी की मृत्यु से सभी गांव वासियो को गहरा धक्का लगा। फिर कुछ दिनों बाद गांव के मंदिर में नए पंडित जी को रखने पर विचार हुआ तो एक योग्य विद्वान पंडित जी को गांव के मंदिर में रखा गया नए पंडित जी सभी शास्त्रों में निपुण थे तथा बहुत ही आध्यात्मिक व प्रेरणाप्रद व्यक्ति थे परंतु उनका स्वभाव बहुत कठोर था।
संध्या के समय जब मंदिर में आरती प्रारंभ हुई तो उन्होंने देखा की सभी लोग गलत उच्चारण कर रहे हैं उस समय तो उन्होंने कुछ नहीं कहा पर सुबह की आरती के समय सब को टोकना चालू कर दिया "रे" नहीं "रै" बोलो "के" नहीं "कै" "कै" बोलो आरती के बीच में ही वह सब को डाटने लगे शुद्ध पढ़ो जिससे आरती का सारा रस समाप्त हो गया। धीरे धीरे उनकी टोका टाकी सुबह शाम बढ़ने लगी यह उनका स्वभाव बन गई।
लोग पंडित जी को तो कुछ नहीं कह सकते थे इसलिए उन्होंने ने टोका टाकी से परेशान होकर मंदिर जाना ही कम कर दिया उनका मत था कि यदि "कै" "कै" हि करनी है तो मंदिर जानें का क्या फायदा पंडित जी आरती तो करने नहीं देते डांटते तो रहते हैं।
धीरे धीरे मंदिर में वो रोनक ना रही आरती में भी वह रस ना रहा इक्क दूक्का ही लोग आरती में शामिल होते थे।
एक दिन पंडित जी के स्वप्न में पुराने पंडित जी आए एवं उन्होने नए पंडित जी को डाँट लगाई-
"आप सब भगतो को आरती बोलते वक्त क्यों बार बार टोकते है भले ही वे लोग गलत उच्चारण करते हैं लेकिन उनका प्रभु के प्रति कितना सच्चा प्रेम है वो नहीं दिखा आपको ? श्री हरि विष्णु जी जिस मंदिर में स्वयं आरती सुनने आते थे आज वह कैसे वीरान पढ़ा हुआ है। प्रभु बहुत नाराज हैं आपसे"
यह बात सुनकर पंडित जी को अपनी भूल का एहसास हुआ और इसके बाद उन्होंने ने आरती के समय सब को टोकना बंद कर दिया और वह लोगों को दोपहर के समय शुद्ध उच्चारण करने का पाठ पढ़ाने लगे जिससे मंदिर की रोनक फिर से लौट आई और लोगों का उच्चारण भी शुद्ध होने लगा।
सीख:
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
भगवान भक्त का ज्ञान व शुद्ध उच्चारण नहीं बल्कि भक्त की प्रेमा भगति, सच्ची निष्ठा, पवित्र भावना और भरोसा देखते हैं. उच्चारण के शुद्ध अभ्यास का एक मात्र उद्देश्य स्वयं के ज्ञान में वृद्धि करना मात्र है और कुछ भी नहीं इससे अंहकार का जन्म होना स्वाभाविक है।
Comments
Post a Comment