Emblem of Iran and Sikh Khanda

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ईरानी प्रतीक चिह्न और सिखों के खंडे में क्या है अंतर पहली नजर में देखने पर सिखों के धार्मिक झंडे निशान साहिब में बने खंडे के प्रतीक चिह्न और इरान के झंडे में बने निशान-ए-मिली के प्रतीक चिह्न में काफी सम्मानता नजर आती हैं परन्तु इनमें कुछ मूलभूत अन्तर हैं जैसे कि :   Colour : खंडे के प्रतीक चिह्न का आधिकारिक रंग नीला है वहीं ईरानी प्रतीक चिह्न लाल रंग में नज़र आता है। Established Year : खंडे के वर्तमान प्रतीक चिह्न को सिखों के धार्मिक झंडे में अनुमानतन 1920 से 1930 के दरमियान, शामिल किया गया था। वहीं निशान-ए-मिली के प्रतीक चिह्न को ईरान के झंडे में 1980 की ईरानी क्रांति के बाद शामिल किया गया था। Exact Date : इस ईरानी प्रतीक चिह्न को हामिद नादिमी ने डिज़ाइन किया था और इसे आधिकारिक तौर पर 9 मई 1980 को ईरान के पहले सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातुल्ला खुमैनी जी ने मंजूरी के बाद ईरानी झंडे में शामिल किया गया। वहीं सिखों के झंडे का यह वर्तमान प्रतीक चिह्न विगत वर्षो के कई सुधारों का स्वरूप चिह्न है इसलिए इसके निर्माणकार और निर्माण की तिथि के बारे में सटीक जानकारी दे पाना बहुत जटिल बात है, ...

santhara kya hai संथारा क्या है

 

                संथारा या सल्लेखना साधना क्या है

नमस्कार साथियों आप जी ने अपने जीवन काल में कभी ना कभी तो संथारा शब्द को अवश्य सुना ही होगा और हाल के कुछ वर्षों में यह शब्द काफी प्रचलित भी रहा है। आईए सरलता से इस शब्द के वास्तविक अर्थ को समझने का प्रयत्न करते हैं।

सर्वप्रथम यह समझ लीजिए की संथारा या सल्लेखना वास्तव में एक ही शब्द है। जो कि जैन धर्म का एहम हिस्सा है। जैन धर्म मुख्यतः दो सम्प्रदायों में विभाजित है। श्वेतांबर जैनों में संथारा शब्द प्रचलित है और दिगम्बर जैन इसे सल्लेखना कहते हैं।

संथारा या सल्लेखना साधना क्या है ?

जैन साधु-संत महात्माओं की भाषा में यह मोक्ष प्राप्ति की साधना है और सामान्य शब्दों में कहें तो यह स्वेच्छा से प्राण त्यागने का मार्ग है।

पहले हमें कुछ बातें स्पष्ट रूप से समझनी होगी।

मोक्ष क्या है ?

धार्मिक ग्रंथो के अनुसार मोक्ष वह अवस्था है जिसमें जीव आत्मा जन्म मरण के बंधनों से हमेशा हमेशा के लिए मुक्त हो प्रभु चरणों में विलीन हो जाती है। स्मरण रहे मोक्ष की प्राप्ति वास्तव में किसी विरले प्राणी को ही होती है सभी साधको को नहीं चोटी के साधु संत भी इस अवस्था को प्राप्त करने में चुक जाते हैं साधारण मनुष्यों की तो बात ही रहने दीजिए। 

मोक्ष प्राप्ति का मार्ग क्या है ?

साधारण शब्दों में समझे तो मोक्ष प्राप्ति का साधन है प्रभु भक्ति हमारे पुरातन साधु संतो को यह बात समझ आ गई थी कि यदि वह प्रभु सिमरन करते हुए अपने प्राणों का त्याग करेंगे तो उन्हे मोक्ष की प्राप्ति हो जायेगी अगर मोक्ष ना भी मिला तो वह स्वर्ग के भागीदार तो अवश्य बन ही जाएंगे।

प्राणी की मृत्यु कब होगी यह विधाता के अतिरिक्त और कोई नहीं जानता इसलिए पुरातन ऋषि मुनी मोह माया के झंझटो से मुक्त हो वनों को अपनी तपोस्थली बना लेते थे और वहीं तपस्या में लीन रहते थे कि कहीं अवसर हाथ से निकल ना जाए।

बात स्पष्ट हो गई कि मरते समय यदि जीव आत्मा का ध्यान प्रभु चरणों में लीन हो तो उसे मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।

दूसरी बात भी समझ लीजिए कि जितनी शिद्दत से हम दुख में प्रभु को याद करते हैं। शायद उतनी शिद्दत से हम उसे सुखों में याद नहीं करते।

                   अब अपने विषय की और चलते है                         

                       दोद्दहूँदी निषिद्ध शिलालेख 

जो गंगा राजवंश के राजा नीतिमार्गा प्रथम के सल्लेखना लेने के उपलक्ष्य में बनवाया गया था।


रत्नकरण्ड श्रावकाचार एक प्रमुख जैन ग्रन्थ हैं जिसकी रचना आचार्य समंतभद्र जी ने दूसरी शताब्दी में की थी। इसी ग्रंथ में संथारा का उल्लेख पाया जाता है.

संथारा या सल्लेखना साधना का रूप क्या है ?

भगवती आराधना/206/423 सल्लेहणा य दुविहा अब्भंतरिया य बाहिरा चेव। अब्भंतरा कसायेसु बाहिरा होदि हु सरीरे।206।

अर्थातः संथरा या सल्लेखना मोक्ष प्राप्ति का मार्ग है इसके दो सरूप हैं अभ्यंतर और बाह्य। या कहें आत्मिक और शारीरिक        अभ्यंतर सल्लेखना कषायों में होती है और बाह्य सल्लेखना शरीर में। अर्थात् आत्मिक विकारों (काम,क्रोध, लोभ,मोह तथा अहंकार) पर संयम स्थापित करना अभ्यंतर सल्लेखना है और शारीरिक विकारों पर संयम स्थापित करना बाह्य सल्लेखना है।

उदाहरण

मन को भोजन कराए बिना ही तॄप्त रखना और जीभा को व्यंजनो के स्वाद से विमुक्त रखना संयम कहलाता है और वास्तव में यही सल्लेखना की आधार शीला है। इसी आधार शीला पर मुनिवर सल्लेखना अवस्था को प्राप्त करते हैं

क्या किसी गृहस्थ को सल्लेखनाधिकार प्राप्त हो सकता है ?

 उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतिकारे ।                     धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥ १ ॥

आर्या गणधरदेवादय: सल्लेखनामाहु:। किं तत्? तनुविमोचनं शरीरत्याग:। कस्मिन् सति? उपसर्गे तिर्यङ्मनुष्यदेवाचेतनकृते। नि:प्रतीकारे प्रतीकारागोचरे। एतच्च विशेषणं दुर्भिक्षजरारुजानां प्रत्येकं सम्बन्धनीयम्। किमर्थं तद्विमोचनम्? धर्माय रत्नत्रयाराधनार्थं न पुन: परस्य ब्रह्महत्याद्यर्थम्॥ १॥

अर्थातः उपद्रव को उपसर्ग कहते हैं। वह तिर्यंच, मनुष्य, देव और अचेतनकृत इस प्रकार चार प्रकार का है। जब अन्न की एकदम कमी हो जाए, सभी जीव-जन्तु भूख से पीडि़त होने लगे इस प्रलयकारी अवस्था को अकाल कहते हैं। वृद्धावस्था के कारण शरीर अत्यन्त जीर्ण हो जाए इस दुर्भिक्ष अवस्था को जरा कहते हैं। शरीर में बहुत ही दर्द भरे असाध्य रोग की उद्भूति हो जाए इस अवस्था को रुजा कहते हैं। ये चारों इस रूप में उपस्थित हो जायें कि जिनका प्रतिकार ना हो सके, तब रत्नत्रयधर्म की आराधना करने के लिए शरीर छोडऩे को सल्लेखना कहते हैं। 

किन्तु प्राणघात के लिए जो शरीर का त्याग किया जाता है, वह सल्लेखना नहीं है। 

क्या किसी को सल्लेखना साधना के लिए विवश किया जा सकता ?

सर्वार्थसिद्धि/7/22/363/4 न केवलमिह सेवनं परिगृह्यते। किं तर्हि प्रीत्यर्थोऽपि। यस्मादसत्यां प्रीतौ बलान्न सल्लेखना कार्यते। सत्यां हि प्रीतौ स्वयमेव करोति।

अर्थातः जैसे किसी को जबरदस्ती कुछ खिलाया नहीं जा सकता ठीक उसी प्रकार किसी को बलपूर्वक सल्लेखना करने को नहीं कहा जा सकता और ना ही उसे ऐसा करने के लिए बाध्य किया जा सकता है व्यक्ति अपनी प्रीती से स्वयं सल्लेखना करता है।

क्या सल्लेखना करने की प्रीती सब में होती है।

राजवार्तिक/7/22/12/551/34 स्यादेतत्-पूर्वसूत्रेण सह एक एव योग: कर्त्तव्य: लघ्वर्थ इति; तन्न; किं कारणम् । कदाचित् कस्यचित् तां प्रत्याभिमुख्यज्ञापनार्थत्वात् । सप्ततपशीलवत: कदाचित् कस्यचित् गृहिण: सल्लेखनाभिमुख्यं न सर्वस्येति।

अर्थातः कभी-कभी तथा किसी विरले को ही सल्लेखना की अभिमुखता होती है, सात शील व्रतों को धारन करने वाला कोई एक आध गृहस्थ ही कदाचित् सल्लेखना के अभिमुख होता है, सब नहीं।

सल्लेखनाधिकार कौन दे सकता है ?

जैन धर्म के मुताबिक़, धर्मगुरु ही किसी व्यक्ति को सल्लेखनाधिकार दे सकते हैं उनकी इजाज़त के बिना किसी को भी संथारा करने की अनुमति नहीं है। और वह आसानी से हर किसी को इस प्रक्रिया को करने की अनुमति देते भी नहीं है। इसके लिए वह यातक और उसकी मनोअवस्था का गहण अध्ययन करते हैं। और हजारों में से किसी एक को ही यह अधिकार प्राप्त होता है।

अधिकांश मामलों में तो मुनिवर यातक को केवल सीमित काल के लिए आहारादि का त्याग कर प्रत्याख्यान व्रत करने की ही सलाह देते हैं।

क्या सल्लेखनाधिकार सब को दिया जा सकता है ?

जैन ग्रंथों में सल्लेखना के पांच अतिचारों का जिक्र है 

1. जीवितशंसा – जिस व्यक्ति में जीवित रहने की इच्छा हो।

2 मरणाशंसा – जो व्यक्ति छोटी मोटी तकलीफ के कारण शीघ्र से शीघ्र मरना चाहता हो।

3 भयवश- जो व्यक्ति किसी भय के कारण मरने की इच्छा रखता हो 

4 मित्रस्मृति- जो व्यक्ति अपने प्रियजनों के छोड़ जाने के गम में मरना चाहता हो 

5 निदान – जिस व्यक्ति में आगामी भोगों(सुखों) को भोगने की लालसा मौजूद हो।

इनमें से एक भी अतिचार होने पर यातक को सल्लेखनाधिकार नहीं दिया जा सकता और इनमें से यदि कोई अतिचार संथारा साधना के दौरान संथारा करने वाले यातक में उत्पन्न हो तो उसकी यह साधना निष्फल मानी जाती है।

संथारा कैसी साधना है ?

संथारा एक बेहद ही जटिल साधना है। जैन धर्म में संथारा साधना की शुरुआत नौकार्थी उपवास के साथ शुरु होती है सबसे पहले सूर्योदय के बाद 48 मिनट तक उपवास किया जाता है, जिसमें व्यक्ति जल भी ग्रहण नहीं कर सकता। बाद के दिनों में वह व्यक्ति ठोस अन्न का त्याग कर केवल दूध जल पर ही आश्रित हो जाता है और अंतिम अवस्था के दौरान वह कुछ भी ग्रहण नहीं करता पूर्ण निश्चय के साथ इस प्रक्रिया का पालन करते हुए वह अपना पूरा ध्यान पंच-नमस्कार मंत्र में रखने का ही हर सम्भव प्रयत्न करता है साथीगण उस व्यक्ति के आसपास धर्मग्रंथ का पाठ करते हैं और केवल सत्संग होता है।

 

                             आलोचना

सबसे पहले तो अहिंसा परमो धर्म का दिव्य संदेश देने वाले भगवान महावीर के चरणों में मेरा कोटि कोटि नमन। दास यहां एक बात पूर्णतः स्पष्ट कर देना चाहता है कि दास तय दिल से जैन धर्म और उसके सभी अनुयाइयों का आदर सम्मान करता है और किसी की भी भावना को किसी भी रूप में ठेस पहुंचाने का ईरादा नहीं रखता दास के मन में जैन धर्म और इसकी मान्यताओं के प्रति राई के दाने के बराबर भी द्वेष नहीं है और ना ही कभी होगा।

दास की आलोचना का विषय तो आप भली भाँति समझ ही गए होंगे फिर भी आप को बता दूँ कि दास संथारा जैसी पवित्र और दिव्य प्रक्रिया पर अपने विचारों व्यक्त करने जा रहा है। दास से कुछ भूल हो जाए तो दास क्षमा का प्राथी है।

साथियो जैन धर्म के शुरुआती समय से ही सल्लेखना या संथारा साधना की तुलना आत्महत्या की जाती रही है और यह सदियों से एक विवादास्पद मुद्दा रहा है।

 प्रारंभिक बौद्ध तमिल महाकाव्य कुंडलकेसी में इसकी तुलना आत्महत्या से कि गई है। 

नीलाकेसी जैसे समकालीन तमिल जैन साहित्य में भी इस विधि का खंडन किया गया है।

साथियो जैन ग्रन्थों में यह बात पूर्णतया स्पष्ट है की सल्लेखनाधिकार जब चाहे लिया नहीं जा सकता और जब चाहे दिया नहीं जा सकता। इस दिव्य अधिकार को देने वाला और उसे प्राप्त करने वाला दोनों ही सल्लेखनाधिकार का दुरूपयोग नहीं कर सकते। इस अधिकार की दिव्यता को बनाए रखने की नैतिक जिम्मेदारी दोनो ही पक्षो की एक सम्मान रूप से बनती है।

साथियो यहां तक मेरा विश्वास है तो इस संसार में सेवा की सबसे अधिक आवश्यकता किसी रोगी या वृद्ध व्यक्ति को ही पड़ती है क्योंकि दोनो ही जन अपने दैनिक कार्यों को करने में असमर्थ हो जाते हैं ऐसी अवस्था में उन्हे सहारे के साथ साथ सहानुभूति की भी आवश्यकता होती है तांकि वह अपने आप को असहाय और लाचार महसूस ना करें। ऐसा होने पर वह डिप्रेशन का शिकार हो सकते है जिससे उनमे जिदंगी जिने की इच्छा खत्म होने लगती है। कुछ मामलों में तो अपनों की बेरूखी के चलते भी वह मौत को गले लगाने में अपनी भलाई समझते हैं। वह दूसरो पर कब तक बोझ बन कर जिएंगे जब यह भावना उनके मन मस्तिष्क में घर कर जाती है तो वह अपने आप को नुकसान पहुंचाने में भी गुरेज नहीं करते।

आज के जिस परिवेश में हम रह रहें हैं वहां तो लोगों के पास दूसरों का दुख-दर्द सुनने का भी टाईम नहीं बांटने की तो बात ही छोड़ दीजिए। आज की युवा पीढ़ी अपने माता पिता के साथ कैसा व्यवहार करती है यह कोई लुकी छुपी बात नहीं रह गई। किसी बुजुर्ग को कैसे कैसे ताने सुनने पढ़ते हैं यह तो कोई बुजुर्ग ही बेहतर जानता हैं या वो विधाता।  हम सब जानते हैं इस घोर कलयुग में क्या क्या हो रहा है लोग अपने मां-बाप की जरूरतो का ध्यान रखना तो छोड़िए उनसे तंग आकर उनसे अपना पीछा छुड़वाने के लिए उनका रोटी पानी तक बंद कर देते हैं रोज रोज के इन झमेलों से तंग आकर वह बुजुर्ग सोचता है कि ऐसे जीवन से तो मरना ही भला है।

मुझे माफ करें ऐसा बिल्कुल हो सकता है कि किसी रोगी या बुजुर्ग को इतने ताने मारे गए हों इतना जलील किया गया हो कि वह संथारा के मार्ग को अपनाने के लिए विवश हो गया हो। आधुनिक समाज के बुद्धिजीवी लोग इसे इमोशनल अत्याचार की संज्ञा देते हैं

मौत सब को आनी है किसी को आज तो किसी को कल इससे आज तक कोई नहीं बच सका पर परमात्मा को अन्न जल छोड़कर मौत देने के लिए विवश करना कितना क बड़ा महान कार्य है आप स्वयं विचार कर सकते हैं।

इस संसार में जिस भी जीव की मृत्यु निकट हो साधारणतय ऐसा देखा गया है कि वह जीव खुद बा खुद अन्न जल का त्याग कर देता है। अस्पताल में मरीजो को लगने वाली फूड पाइप इसका एहम उदाहरण है। जिन बुजुर्गों या रोगियो का देहांत होने वाला होता है वह एक या दो दिन पहले ही अन्न जल का त्याग कर देते है। It is a natural process. अपने आप ही उनका शरीर इसे अस्वीकार करने लगता है। यहां तक की पशुजगत में भी घर में पाले जाने वाले मवेशी भी मृत्यु से पूर्व खाना पीना बंद कर देते हैं। It is a law of nature.

पर किसी को इमोशनली ब्लैकमेल करके उसे जानबूझकर कर खाना पीना छोड़ने के लिए बाध्य करना गुनाहे अजिम है। संथारा प्रक्रिया कुछ मामलों में तो 15 दिनों से अधिक चलती देखी गई। और मुझे माफ करे कुछ विशिष्ट मामलों में यह प्रक्रिया 3 से 4 माह तक भी जारी रही है। इतने ल॔बे समय तक यदि आप किसी पुर्णतया स्वस्थ व्यक्ति को भी भुखा रखेंगे तो वह निस्संदेह मर जाएगा और यह एक natural deth ना होकर के बहुत ही पीड़ा दायक मौत होगी ओ मेरे भाई परमात्मा के लिए यरा एक बार खुद को उन बुजुर्गों की जगह रख कर तो सोचो।

 हम लोगों को तो अंतिम पलों में बुजुर्गों की सेवा करनी चाहिए उनका जिस चीज को खाने का मन करता है हर यथासंभव उन्हे लाकर देने का प्रयत्न करना चाहिए और हम कर क्या रहे हैं।

हमें अपने कर्मों की वजह से दुख सुख झेलने पड़ते हैं। यह बात पूर्णतः सत्य है कि दुख में ही हम परमात्मा को सच्चे मन से याद करते हैं पर इसका यह मतलब तो नहीं की हम जानबूझकर स्वंय को कष्ट पहुंचाए और ऐसी कल्पना करें की इससे हमारा मन प्रभु भक्ति में लगेगा और हमें मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी इसके उलट कहीं हम परमात्मा को मौत देने के लिए विवश करके कोई अपराध तो नहीं कर रहे।


धर्म कोई भी बुरा नहीं होता और ना ही कभी गलत शिक्षा देता है गलत तो हम लोग हैं जो धर्म ग्रंथों की परिभाषाओं को अपनी अपनी सहुलतों के हिसाब से तोड़ने मरोनड़ने लगते हैं।

एक मीडिया में छपी रिपोर्ट के मुताबिक मुंबई जैसे बड़े शहर में पिछले कुछ वर्षों में 400 से अधिक लोगो ने संथारा प्रक्रिया के तहत जान गवा दी।

सल्लेखनाधिकार प्राप्त करना एक जटिल प्रक्रिया है जैन ग्रन्थ तो यही दावा करते हैं तो यह कौन से धर्मगुरू हैं जिन्होने इस प्रक्रिया को इतना सरल बना दिया है कि इस साधना ने अब समाजिक बुराई का रूप धारण कर लिया है। यह अपने आप में एक जांच का विषय है। मुझे पूरा यकीन है सच्चे जैन गुरू इस विषय पर अवश्य मंत्रणा करेगे।


कड़वे वचन दूसरों को बोलने बहुत आसान होते हैं मुनिवर पर पता तब चलता है जब स्वय को सुनने पड़े।

अपनी नैतिक जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ाने की खातिर कहीं हम लोग अपनी महत्वकांशओ को पूरा करने के लिए अपने बुजुर्गों की बलि तो नहीं चढ़ा रहे। मरने वाले 400 के 400 लोगों को क्या वास्तव में मोक्ष प्राप्त हुआ है मुनिवर आप यह दावा कर सकते हैं यदि नहीं तो आधुनिक समाज में जो इस दिव्य साधना का दुरूपयोग हो रहा है इस पर अवश्य ही जैन धर्म गुरूओं को अब चिंतन-मनन करना चाहिए और यह जरूरी भी है। 

कैसे यह आत्म कल्याण का मार्ग आत्महत्या का मार्ग बनता जा रहा है ?

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